मुक्तक
सूरज के डूबने का भी अपना ही फलसफा है।
ऊंचे मुकाम पर ज्यादा देर कौन टिक सका है ।
जोड़े रहा जो अपनी जड़ों को सदा जमीन से ।
दरख़्त वही तूफानों के आगे भी तन कर खड़ा है।
तेरी यादों का समुंदर इतना गहरा हुआ है ।
बिना तेरे जीवन भी दश्त-ओ-सहरा हुआ है ।
सोता हूं तो मां के आंचल की खुशबू आती है ।
लगता है वक्त अब भी वहीं पर ठहरा हुआ है ।
इतना ऊंचा उड़ो कि यह आसमान छोटा लगने लगे ।
बाहें इतनी फैलाओ कि यह जहान छोटा लगने लगे ।
मंजिलों के रास्ते चाहे जितने भी मुश्किल क्यों ना हो ।
इतना काबिल बनो कि हर इम्तिहान छोटा लगने लगे ।
रिश्ते नाजुक से लेकर दुनिया में आई है बेटी ।
सेवा और सम्पर्ण की तक़दीर लाई है बेटी ।।
लक्ष्मी बन के रहती है पिया और बाबुल के अंगना ।
दो दो घर सजाती है फिर भी पराई है बेटी ।।
बेटी तो इबादत है जो घर को मंदिर बनाती है ।
बेटी वो नेमत है जो जीवन को महकाती है ।
बड़ा मुशिकल है पा लेना इस दुनिया में खुशियों को ।
बेटी है अगर घर में तो खुशियां खुद ही आती है ।।
नकाब तो चेहरे पर जमाने ने पहले से लगा रखा है,
एक चेहरे के पीछे दूसरे चेहरे को छुपा रखा है ।
बाहर के चेहरे पर सजीं है सच की दुकानें दिनेश,
और भीतर के चेहरे से झूठ का व्यापार चला रखा है।
-- दिनेश
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