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विजय दशमी

और अंततः रावण फिर से एक बार जल गया । बुराई का सूरज  एक बार फिर से ढल गया ।  परंतु सत्य कहते  हुए शब्द भी शर्मिंदा है । रावण मरा नहीं  हमारे भीतर अभी भी जिंदा है । कल से फिर अबोध  बच्चियां उसका शिकार होंगी । उसके सामने फिर से  बेबस, मजबूर और लाचार होंगी । कल से वह फिर किसी  घायल को सड़क से नहीं उठाएगा । केवल उस तड़पते मानव  का वीडियो बनाएगा । वास्तव में हम लोगों को  सादगी वाला राम नहीं,  ताकत से भरा रावण आकर्षित करता है । इसीलिए वह प्रतिवर्ष केवल  बाहर से जलता है  भीतर से नहीं मरता है । विजय दशमी को हम अपने  जीवन में उसी दिन उतार पाएंगे । जिस दिन हम अपने भीतर के  रावण को मार पाएंगे ।                         -- दिनेश

सुंदरता

 चाहे  नैन  तेरे  ना  कजरारे और  ना हो उनमें लावण्य                   पर मुझको तो सुंदर लगता है उनमें भरा हुआ कारुण्य।  चाहे नैन तेरे ना हिरनी जैसी ना ही नीले नशीले हैं                         पर लोक लाज से भरे हुए हैं शर्मो हया से गीले हैं। लोगों की पीड़ा को देख जो छलकें नैन वही दो प्यारे हैं                उन  नैनो  को क्या  हम  देखें  जिनमें  भरे  अंगारे  हैं । सुंदर तन वह होता है जिसमें सुंदर मन रहता है                        तुम सबसे सुंदर लगती हो यह मेरा हृदय कहता है।

बैचेनी

 हर चेहरे पर बेचैनी  है  हर  आंखों में लाचारी  है, मरना कितना आसां है यहां जीना कितना भारी है। बेटी  घर से  बाहर हो तो  दिल घबराता  रहता है, कदम-कदम  सैयाद  खड़े हैं बहुत बड़ी दुश्वारी है। तहजीबों के कातिल है जो महफ़िल रोज सजाते हैं,  फिर भी खुद को नायक कहते ये कैसी फ़नकारी है। रिश्ते, नाते, ईमान,जमीर सब बिकता है बाजारों में, जिसने खुद को जितना बेचा वो उतना बड़ा व्यापारी है । अपनो में  भी तन्हा  है  सब  हर  चेहरा अंजाना  है,  दिनेश समझ लो बस इतना अब ये ही दुनियादारी है ।